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आधुनिक भारत मैं नैतिक पतन का इतिहास – ४ : जनता का कितना दोष

With Malice To None
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अक्सर हम राजनेताओं व अफसरशाही को जिम्मेवार बता कर जनता को देश के पतन की जिम्मेवारी से मुक्त कर देते हैं .
वास्तव मैं जनता इसमें बराबर से ज्यादा की हिस्सेदार है .
अब जनता को दिशा देने वाले नेताओं का युग बीत गया . छुटभैये नेता तो जनता का मूड देख कर बात करते हैं .
क्या आज कोई लाल बहादुर शास्त्री पंजाब मेल को किसी छोटे स्टशनों पर रोकने के लिए साफ़ मना कर सकता है. स्वर्गीय चंद्रशेखर ने सिर्फ अपने लिए राजधानी को बलिया पर रुकवा लिया.ममता बन्नेर्जी ने सब सीमायें पर कर अधिकाँश गाडियां बंगाल से चला दी.जनता की तालियाँ ममता सरीखों का सहस बढाती हैं .
फूलन देवी को वोट देने वाली जनता किस मुंह से राजनीती के अपराधीकरण पर क्षुब्ध हो सकती है .
जनता यदि सौ रूपये की रिश्वत से रेलगाड़ी मैं सीट मिल जाये तो फ़ौरन देने को तैयार हो जाती है .
तामिलनाडु चुनाव मैं दरवाजे पर साडियां खोस दी गयीं . जनता ने खुशी से ले लिन . क्या उसे नहीं पता था की राजा कहाँ से सारियां खरीदने का धन ला रहा है . जनता मैं अब चौरी चौरा कांड पर स्वंतंत्रता आन्दोलन रोक देने वाला गांधी अब नहीं है क्योंकि अब जनता भी लालच हो गयी है .
तो राज नेता हों या अफसर सब का प्रेरणा स्रोत तो जनता ही है .

इस लिए भारत के नैतिक पतन मैं भारत की जनता ही प्रथम जिम्मेवार है . शेष तो सिर्फ उसके उपभोगकर्ता हैं .
इस लिए अन्ना सरीखों को पहले जनता मैं आदर्श भावना जगानी होगी . इससे ही देश का कल्याण संभव है .

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