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हिंदी का मान ही नहीं राष्ट्रप्रेम व् स्वाभिमान भी कम हो रहा है

With Malice To None
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पिछले कुछ वर्षों में हिंदी का सम्मान निश्चय ही कम हुआ है . विशेषतः जब से भारत में वैश्वीकरण हुआ है तथा देश में कंप्यूटर ज्ञान से नौकरियों कि भरमार हुयी है हिंदी ज्ञान का महत्त्व कम हो गया है . एक जन जन में भावना आ गयी है कि जीवन में प्रगति के लिए तथा भारत कि उन्नति के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है.
हिंदी इस रेस को हार चुकी है .

परन्तु इस साधारण व् लोकप्रिय उत्तर के पीछे कई गंभीर प्रश्न भी छुपे हैं .

देश में इस परिवर्तन के अलावा कई अन्य भी परिवर्तन हुए हैं जिन में से कई गंभीर चुनौती लिए हुए हैं जो अवांछनीय भी हैं .

हिंदी के उत्थान का काल स्वंतंत्रता के आंदोलन का काल था . हिंदी देश कि एकता का प्रतीक मानी जाती थी . उसका उत्थान राष्ट्र के स्वाभिमान व् देश भक्ति का प्रतीक था.
इसमें पहली चोट द्रविड़ पारटीयों का हिंदी विरोध था . देश कि अखंडता कि परिकल्पना को यह पहली चोट थी . परन्तु इस आंदोलन के सीमित प्रभाव से हिंदी का प्रचार चलता रहा . राजभाषा के रूप में हिंदी का उपयोग बहूत बढ़ा .रेलवे व् कई अन्य मंत्रालयों ने हिंदी के प्रचार में सराहनीय कार्य किया . हिंदीभाषी राज्यों में इसका उपयोग काफी बढ़ा . जनमानस में हिंदी के प्रति आदर था.
बी जे पी के काल में हिंदी का सम्मान बहूत बढ़ा क्योंकि देश के प्रधान मंत्री हिंदी कवि भी थे.

युपीये के कार्य काल में हिंदी का सम्मान खतम हो गया .बहूत गृह मंत्री हिंदी में बोल नहीं सकते थे . प्रधान मंत्री उच्च अर्थशास्त्री हैं पर उनका राष्ट्र प्रेम अलग तरीके का है.
इस सरकार में स्वदेशी , हिंदी ,राष्ट्रप्रेम, संस्कृति इत्यादि सब का अवमूल्यन हुआ है . जीवन कि संवेदनाओं का अवमूल्यन हुआ है.अब सिर्फ पैसा ही राज कर रहा है .

हिंदी का अवमूल्यन वास्तव में राष्ट्रभक्ति व् राष्ट्रप्रेम का अवमूल्यन है.

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