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कभी शेर कि तरह दहाड़ने वाली भारतीय अर्थ व्यवस्था अचानक मिमयाता मेमना कैसे बन गयी
कभी १० % उन्नति का सपना देखने वाली अर्थव्यवस्था इतनी चौपट कैसे हो गयी ?
इस प्रश्न का उत्तर कोई बिका हुआ अखबार या चनेल नहीं दे रहा.
हमारी अर्तव्यवस्था १०% ग्रोथ पर जा सकती थी कि उसे पहला झटका शरद पवार ने युपीऐ१ में दिया जब उन्होंने एक सूखे के वर्ष में गल्ले के व्यापारियों कि खातिर बैंक लोन खोल दिए .व्यापारियों ने जमाखोरी से महंगाई को आसमान पर पहुंचा दिया .
स्तंभित सरकार पवार को नहीं रोक पाई और मजबूरी ने उसने ब्याज दर व् बैंक लोन में कटौती कर दी . इससे देश में औद्योगिक मंदी छ गयी पर कीमतें नहीं घटी .गल्ले के बाद सब्जियों व् फलों कि कीमतों में एक छलांग लगा दी .
घबराई सरकार ने देश के वोट के लिए किसानों के क़र्ज़ को माफ करने कि घोषणा कि जिससे बहूत नुक्सान नहीं हुआ . परन्तु रोज़गार योजनाओं के अंधाधुंध खर्चों ने बिना उत्पादन बढाए लोगों कि जेबें भर दी . बिहार के लोगों ने पंजाब जाना बंद कर दिया क्योंकि घर बैठे मुफ्त में पैसा मिलने लगा. मीलों व् पंजाब में मजदूरों को वापस लाने के लिए मजदूरी २५० रूपये दहाड़ी कर दी .
महंगाई फिर आसमान को छूने लगी . घबराई सरकार ने बेवकूफी कि तरफ फिर कदम बढ़ा दिए और बैंक दर बढ़ा दी . कार व् घर लोन महंगा हो गया . इससे इनकी बिक्री घाट गयी . औद्योगिक मंदी बिलकुल भी आवश्यक नहीं है . इसे सरकार कि बेवकूफियों ने दिया है .
जब भ्रष्टाचार के आंदोलन से सरकार हिल गयी तो सत्ता को बचने के लिए एक और आत्मघाती योजना ले आई . फ़ूड सिक्यूरिटी कि.
देश रोज़गार योजनाओं के कुप्राभावों से अभी नहीं निकल पाया था कि ये नये भस्मासुर को जनम दिया जा रहा है .
यदि यह भस्मासुर आ गया तो देश हमेशा के लिए पातळ में चला जायेगा .
पर अन्ना व् रामदेव के आंदोलनों से घिरी अब देश बेच कर वोट खरीदने पर आमदा है . देश चाहे कितना गर्त में चला जाये.अब मूलमंत्र है कि
देश दिए यदि वोट मिले तो भी सस्ता जान
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