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माँ, माँ, मुझे भी साइकिल चाहिए
श्रुति की पुकार साइकिल की हाहाकार
मई का महीना था, श्रुति स्कूल से तीन बजे आयी, पसीने में नहाई हुयी थी, तीन किलोमीटर चलने के बाद, घर में नहाने के लिए पानी नहीं था, भूख बहुत अधिक लगी थी, मुंह धोकर बोली, माँ, माँ रोटी दो, बड़ी भूख लगी है। जब सुमित्रा थाली में खाना लेकर आयी तो देखा कि आँखों में आँसू भरे हैं। उसने कारण पूछा तो श्रुति ने कोई जबाव नहीं दिया। रोटी खाते हुए वो टिक टिकी लगाकर दीवार पर देखती रही।
थोड़ी देर बाद जब श्रुति खाना खाकर उठी तो सुमित्रा ने फिर पूछा कि बिटिया तुम क्यों रोयी? जब श्रुति ने अपने रोने का कारण बताया तो सुमित्रा भी रो पड़ी। श्रुति ने माँ को उसके साथ पढ़ने वाली अमीना को अब एक साइकिल मिल गयी है। सरकार ने दी है, शीला दीक्षित की सरकार ने दी है। अब अमीना को इस गरमी में स्कूल पैदल नहीं जाना पढ़ता।
श्रुति बोली, माँ, माँ, मुझे भी साईकिल चाहिए। सुमित्रा ने बिटिया को बताया कि उसके पापा के पास इतने पैसे नहीं कि वो श्रुति को एक साईकिल लेकर दे सकें। सरकार तो केवल नवी और दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली मुसलमान बालिकाओं को ही स्कूल आने जाने के लिए साईकिल देती है। ऐसा एक हुकम प्रणब जी ने दिया था जब वो वित्त मंत्री थे।
एक अनजान माँ की मार्मिक कहानी
श्रुति ने कहा कि माँ हम क्यों ना मुसलमान बन जायें? फिर तो हम से सरकार घृणा नहीं करेगी। मुझे भी साईकिल मिल जायेगी, मेरी सहेलियों सुधा और सावित्री को भी साईकिल मिल जायेगी सुमित्रा के मन में एक तूफान उठा, नहीं, हम साईकिल के लिए अपना धर्म नहीं बदलेंगे। आज में अपनी दो सोने की चूडि़यां बेचकर अपनी बिटिया रानी को साईकिल लेकर दूंगी! और श्रुति ताली बजाकर नाच उठी।
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